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1212 1122 1212 22/112 बह्र पर ग़ज़ल

1212 1122 1212 22/112 बह्र पर ग़ज़ल


1212 1122 1212 22/112 


कभी भी कोई भी ज़ुल्मी मुझे बशर न लगे
और इस नज़रिये को मेरे कभी नज़र न लगे

अगर नदी के भयानक भँवर से डर न लगे
तो फिर नदी को भी तैराक बे-हुनर न लगे

लगा के दाँव पे डर हारनी है ये बाज़ी
मैं चाहता हूँ कि मुझको अब और डर न लगे

ये क्या तिलिस्म-ए-सहर है या फिर कोई धोका
कि रात रात ही है ऐसा रात-भर न लगे

या तो ये दिल मेरा काँपेगा या तो फिर ये दहर
दबे या फिर उठे पर सौत बे-असर न लगे

बहुत ज़रूरी है फ़य्याज़ों का यहाँ रहना
दुआ है मुझको तेरी उम्र उम्र-भर न लगे

मैं इसलिए भी हूँ किरदारों का बहुत मोहताज
कि अगली नस्लों को ये क़िस्सा मुख़्तसर न लगे

               - अच्युतम यादव 'अबतर'




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