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122 122 122 12 बह्र पर ग़ज़ल

"122 122 122 12" बह्र पर ग़ज़ल


122 122 122 12

गुल-ए-तर भले आप के हो गए
लब-ए-गुल मगर ख़ार से हो गए

ज़रा उम्र का फ़ासला ही है वज्ह
कि ता-उम्र के फ़ासले हो गए

हमारा तो बचपन गया ही नहीं
हमारे खिलौने बड़े हो गए

ज़रा बहस क्या हो गई मौत से
जनाज़े से उठ के खड़े हो गए

बस इक फूँक से बुझ गया आसमाँ
सितारे भी मानो दिए हो गए

हुईं ज़र्द साँसें तिरी इस क़दर
मिरे दिल के पत्थर हरे हो गए

न था कोई घर सो चलो मर के हम
कम-अज़-कम किसी घाट के हो गए

मुझे मर के भी काम आना पड़ा
मिरे नाम पर रास्ते हो गए 

        - अच्युतम यादव 'अबतर'


गुल-ए-तर - ताज़े फूल
लब-ए-गुल - फूलों के होंट 


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