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212 1222 212 1222 बह्र पर ग़ज़ल

"212 1222 212 1222" बह्र पर ग़ज़ल

 "212 1222 212 1222" बह्र पर ग़ज़ल 


बात बन न पाएगी चंद ईंटें ढहने से
है अज़ीम महल-ए-ग़म मेरे दिल के रक़्बे से


छोड़ दी है दिल ने ज़िद अब उदास रहने की
और चाहते हैं क्या आप एक बच्चे से


तल्ख़-लहजे से दीवार दरमियाँ उठी थी जो
आख़िरश गिरी भी आज लहजा ही बदलने से


पहले तो नहीं समझा उसकी नफ़रतों को मैं
सरहदें हुईं ज़ाहिर हरकतों के नक़्शे से


हूँ मैं बा-हुनर नक़्क़ाश पर अदक़ है ये ज़िम्मा
इक बदन बनाना है वो भी एक साए से


इम्तिहाँ मोहब्बत का राएगाँ गया इतना
नाम लिस्ट में अपना ढूँढता हूँ नीचे से


इन खिलौनों पे ही तो कब से लेटी है 'अबतर'
लाश अपने बचपन की ढूँढ ली है बक्से से

           - अच्युतम यादव 'अबतर'




रक़्बा- क्षेत्रफल
अज़ीम - विशाल
नक़्क़ाश - चित्रकार
अदक़ - मुश्किल

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